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म꣣न्द्र꣡या꣢ सोम꣣ धा꣡र꣢या꣣ वृ꣡षा꣢ पवस्व देव꣣युः꣢ । अ꣢व्या꣣ वा꣡रे꣢भिरस्म꣣युः꣢ ॥५०६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

मन्द्रया सोम धारया वृषा पवस्व देवयुः । अव्या वारेभिरस्मयुः ॥५०६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म꣣न्द्र꣡या꣢ । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वस्व । देवयुः꣢ । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रे꣢꣯भिः । अ꣣स्म꣢युः ॥५०६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 506 | (कौथोम) 6 » 1 » 2 » 10 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः सोम परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) सोम ओषधि के समान रसागार परमेश्वर ! (वृषा) आनन्द के वर्षक, (देवयुः) हमें दिव्य गुण प्रदान करने के इच्छुक, (अस्मयुः) हमसे प्रीति करनेवाले आप (अव्याः वारेभिः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के सदृश हमारे मन के सात्त्विक भावों के माध्यम से (मन्द्रया धारया) आनन्दप्रद धारा के साथ (पवस्व) द्रोणकलश के तुल्य हमारे हृदय-कलश में परिस्रुत होवो ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सोम ओषधि का रस भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्र से छनकर द्रोणपात्र में धारारूप से गिरता है, वैसे ही परमेश्वर मन के सात्त्विक भावों के माध्यम से आनन्द-धारा के साथ स्तोता के हृदय-कलश में प्रकट होता है ॥१०॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः सोमं परमात्मानं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) सोमौषधिरिव रसागार परमेश्वर ! (वृषा) आनन्दवर्षकः, (देवयुः) अस्माकं दिव्यगुणान् कामयमानः त्वम्। देवान् दिव्यगुणान् परेषां कामयते इति देवयुः, ‘छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्। अ० ३।१।८’ वा० इति परेच्छायां क्यच्। ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उ प्रत्ययः। (अस्मयुः) अस्मान् कामयमानः सन् (अव्याः वारेभिः) अविबालनिर्मितैः दशापवित्रैरिव अस्माकं मनसः सात्त्विकैः भावैः, तन्माध्यमेन इत्यर्थः (मन्द्रया धारया) आनन्दप्रदया धारया सह (पवस्व) द्रोणकलशे इव अस्माकं हृदयकलशे परिस्रव ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

यथा सोमौषध्या रसोऽविबालनिर्मितदशापवित्रद्वारा द्रोणपात्रे धारया पतति तथैवानन्दरसनिधिः परमेश्वरो मनसः सात्त्विकभावैरानन्दधारया स्तोतुर्हृत्कलशे प्रकटीभवति ॥१०॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६।१ ऋषिः असितः काश्यपो देवलो वा। ‘अव्यो वारेष्वस्मयुः’ इति पाठः।